नन्ही लाशों को लाये काँधे पर उठाये,
सुबह ही जो अपने हाथों से नहलाये।
चेहरा जी भर देख लूं ज़रा चादर तो हटाना,
बोलकर गया था माँ आज खीर बनाना।
गालों को उसके चूम लूं में बस एक बार,
कितनी जतन् से सुबह किया था तैयार।
नन्ही उंगलियो को थाम लूं पल भर और,
रोक लेती उसे जो चलता मेरा जोर।
आज आखिरी बार इसे गले से लगाऊँ,
खुद को ये बात भला कैसे मैं समझाऊँ।
इन मासूमों को मार हासिल क्या हुआ,
जमाने भर की लगेगी तुम्हे बददुआ।
इतना नाज़ुक बदन छलनी-छलनी कर डाला,
याद रखना तुम्हे वो माफ़ नहीं करने वाला।
(शायद कुछ ऐसे ही ख्याल हर उस मासूम की माँ के दिल में आए होंगे, जब अपने दिल के टुकडे को गोलियों से छलनी बेजान पाया होगा)
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